उर्यां हरारत-ए-तप-ए-फ़ुर्क़त से मैं रहा
हर बार मेरे जिस्म की पोशाक जल गई
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न कोई उन के सिवा और जान-ए-जाँ देखा
ख़ुद-फ़रोशी को जो तू निकले ब-शक्ल-ए-यूसुफ़
बे-बुलाए हुए जाना मुझे मंज़ूर नहीं
हमारे ऐब ने बे-ऐब कर दिया हम को
दौलत नहीं काम आती जो तक़दीर बुरी हो
क़मर की वो ख़ुर्शीद तस्वीर है
चाँद सा चेहरा जो उस का आश्कारा हो गया
ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है
ज़ेर-ए-ज़मीं हूँ तिश्ना-ए-दीदार-ए-यार का
बाद-ए-फ़ना भी है मरज़-ए-इश्क़ का असर
अज़ाँ दी काबा में नाक़ूस दैर में फूँका
मैं अगर रोने लगूँ रुतबा-ए-वाला बढ़ जाए