दौलत नहीं काम आती जो तक़दीर बुरी हो
क़ारून को भी अपना ख़ज़ाना नहीं मिलता
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ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है
जब अयाँ सुब्ह को वो नूर-ए-मुजस्सम हो जाए
इतना तो जज़्ब-ए-इश्क़ ने बारे असर किया
शम्अ भी इस सफ़ा से जलती है
असर ज़ुल्फ़ का बरमला हो गया
छुप सका दम भर न राज़-ए-दिल फ़िराक़-ए-यार में
वहशत में भी रुख़ जानिब-ए-सहरा न करेंगे
पर्दा उलट के उस ने जो चेहरा दिखा दिया
देखी जो ज़ुल्फ़-ए-यार तबीअत सँभल गई
न सिकंदर है न दारा है न क़ैसर है न जम
हम तो अपनों से भी बेगाना हुए उल्फ़त में