ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है
वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है
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गया शबाब न पैग़ाम-ए-वस्ल-ए-यार आया
लब-ए-रंगीं से अगर तू गुहर-अफ़शाँ होता
बाद-ए-फ़ना भी है मरज़-ए-इश्क़ का असर
क़मर की वो ख़ुर्शीद तस्वीर है
असर ज़ुल्फ़ का बरमला हो गया
किस तरह मिलें कोई बहाना नहीं मिलता
मैं अगर रोने लगूँ रुतबा-ए-वाला बढ़ जाए
पूछा अगर किसी ने मिरा आ के हाल-ए-दिल
जोश-ए-वहशत यही कहता है निहायत कम है
पर्दा उलट के उस ने जो चेहरा दिखा दिया