ख़ुद-फ़रोशी को जो तू निकले ब-शक्ल-ए-यूसुफ़
ऐ सनम तेरी ख़रीदार ख़ुदाई हो जाए
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जोश-ए-वहशत यही कहता है निहायत कम है
मतलब न काबे से न इरादा कनिश्त का
देखी जो ज़ुल्फ़-ए-यार तबीअत सँभल गई
पूछा अगर किसी ने मिरा आ के हाल-ए-दिल
ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है
न कोई उन के सिवा और जान-ए-जाँ देखा
न सिकंदर है न दारा है न क़ैसर है न जम
असर ज़ुल्फ़ का बरमला हो गया
बे-बुलाए हुए जाना मुझे मंज़ूर नहीं
गया शबाब न पैग़ाम-ए-वस्ल-ए-यार आया
मैं अगर रोने लगूँ रुतबा-ए-वाला बढ़ जाए