वही उठाए मुझे जो बने मिरा मज़दूर
तुम्हारे कूचे में बैठा हूँ मैं मकाँ की तरह
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ये मैं कहूँगा फ़लक पे जा कर ज़मीं से आया हूँ तंग आ कर
गरमी इमसाल किस क़यामत की पड़ी
आएँगे गर उन्हें ग़ैरत होगी
यार पहलू में निहाँ था मुझे मा'लूम न था
वो हटे आँख के आगे से तो बस सूरत-ए-अक्स
खुला है जल्वा-ए-पिन्हाँ से अज़-बस चाक वहशत का
बेदार नहीं कोई जहाँ ख़्वाब में है
दिल आया है क़यामत है मिरा दिल
चराग़-ए-हुस्न है रौशन किसी का
कब कोई फ़ुज़ूल हाथ मिलता है भला
पीरी की सपेदी है कि मरता हूँ मैं
असरार जहाँ लतीफ़ा-ए-ग़ैबी हैं