हाँ जेहल तुम्हें से रंग लाया फिर क्यूँ
लाया तो गिला ज़बाँ पर आया फिर क्यूँ
गर जानते थे ख़ाना-ख़राबी के सबब
मेहमाँ को मेज़बाँ बनाया फिर क्यूँ
Allama Iqbal
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याद में ख़्वाब में तसव्वुर में
यार पहलू में निहाँ था मुझे मा'लूम न था
गौहर-ए-मक़्सद मिले गर चर्ख़-ए-मीनाई न हो
ऐ जुनूँ हाथ के चलते ही मचल जाऊँगा
ग़म्ज़ा-ए-मा'शूक़ मुश्ताक़ों को दिखलाती है तेग़
नहीं ये आदमी का काम वाइ'ज़
खुला है जल्वा-ए-पिन्हाँ से अज़-बस चाक वहशत का
आवारा-ए-हिर्स दर-ब-दर फिरता है
हज़ारों दिल मसल कर पैर से झुँझला के यूँ बोले
असरार जहाँ लतीफ़ा-ए-ग़ैबी हैं
कभी हँसाया कभी रुलाया कभी रुलाया कभी हँसाया
अदाएँ ता-अबद बिखरी पड़ी हैं