बात वो कहिए कि जिस बात के सौ पहलू हों
कोई पहलू तो रहे बात बदलने के लिए
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रात भर गर्दिश थी उन के पासबानों की तरह
हुआ जो वक़्फ़-ए-ग़म वो दिल किसी का हो नहीं सकता
आइना देख के ख़ुर्शीद पे करते हैं नज़र
मुँह फेर कर वो कहते हैं बस मान जाइए
न अरमाँ बन के आते हैं न हसरत बन के आते हैं
ख़ुदा रक्खे तुझे मेरी बुराई देखने वाले
तिरी तेग़ का लाल कर दूँगा मुँह
बेचने आए कोई क्या दिल-ए-शैदा ले कर
शौक़ अपना आप मैं अपनी ज़बाँ से क्यूँ कहूँ
तुम्हारे हाथ ख़ाली जेब ख़ाली ज़ुल्फ़ ख़ाली थी
जो तुझे इम्तिहान देता है
न देखे होंगे रिंद-ए-ला-उबाली तुम ने 'बेख़ुद' से