कहाँ मैं अभी तक नज़र आ सका हूँ
ख़ुदा जाने कितनी तहों में छुपा हूँ
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न गिर्द-ओ-पेश से इस दर्जा बे-नियाज़ गुज़र
फ़रिश्ता है तो तक़द्दुस तुझे मुबारक हो
अदा-ए-हैरत-ए-आईना-गर भी रखते हैं
मैं सिर्फ़ वो नहीं जो नज़र आ गया तुझे
सारे नुक़ूश जिस पे तिरे आशियाँ के हैं
फिर मरहला-ए-ख़्वाब-ए-बहाराँ से गुज़र जा
इस शहर में तो कुछ नहीं रुस्वाई के सिवा
ये राह-ए-इश्क़ है आख़िर कोई मज़ाक़ नहीं
ये दिलचस्प वादे ये रंगीं दिलासे
हसीं है शहर तो उजलत में क्यूँ गुज़र जाएँ