ये राह-ए-इश्क़ है आख़िर कोई मज़ाक़ नहीं
सऊबतों से जो घबरा गए हों घर जाएँ
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ये दिलचस्प वादे ये रंगीं दिलासे
इस शहर में तो कुछ नहीं रुस्वाई के सिवा
कहाँ मैं अभी तक नज़र आ सका हूँ
सारे नुक़ूश जिस पे तिरे आशियाँ के हैं
लम्हा लम्हा मुझे वीरान किए देता है
रह गया ख़्वाब-ए-दिल-आराम अधूरा किस का
फिर मरहला-ए-ख़्वाब-ए-बहाराँ से गुज़र जा
हसीं है शहर तो उजलत में क्यूँ गुज़र जाएँ
न गिर्द-ओ-पेश से इस दर्जा बे-नियाज़ गुज़र
अदा-ए-हैरत-ए-आईना-गर भी रखते हैं