ये दिलचस्प वादे ये रंगीं दिलासे
अजब साज़िशें हैं कहाँ आ गया हूँ
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फिर मरहला-ए-ख़्वाब-ए-बहाराँ से गुज़र जा
हसीं है शहर तो उजलत में क्यूँ गुज़र जाएँ
रह गया ख़्वाब-ए-दिल-आराम अधूरा किस का
कहाँ मैं अभी तक नज़र आ सका हूँ
न गिर्द-ओ-पेश से इस दर्जा बे-नियाज़ गुज़र
लम्हा लम्हा मुझे वीरान किए देता है
मैं सिर्फ़ वो नहीं जो नज़र आ गया तुझे
अदा-ए-हैरत-ए-आईना-गर भी रखते हैं
सारे नुक़ूश जिस पे तिरे आशियाँ के हैं
फ़रिश्ता है तो तक़द्दुस तुझे मुबारक हो
इस शहर में तो कुछ नहीं रुस्वाई के सिवा