सोच उन की कैसी है कैसे हैं ये दीवाने
इक मकाँ की ख़ातिर जो सौ मकाँ जलाते हैं
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मैं सुन नहीं सकता
रौशनी का ग़ुलाम
बीते हुए कल का इंतिज़ार
चराग़ दिल का था रौशन बुझा गया पानी
तुम जलाना मुझे चाहो तो जला दो लेकिन
छोटे क़द के लोग
बारिश
हिदायत
मिरी हयात को बे-रब्त बाब रहने दे
मिरे अज़ीज़ ही मुझ को समझ न पाए कभी
ख़्वाब आँखों में निहाँ है अब भी