जवाँ-मर्दी उसी रिफ़अत पे पहुँची
जहाँ से बुज़दिली ने जस्त की थी
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हम तो मजबूर थे इस दिल से
शाख़ पर ख़ून-ए-गुल रवाँ है वही
कभी कभी याद में उभरते हैं नक़्श-ए-माज़ी मिटे मिटे से
दर्द आएगा दबे पाँव
इज्ज़-ए-अहल-ए-सितम की बात करो
उठ कर तो आ गए हैं तिरी बज़्म से मगर
न दीद है न सुख़न अब न हर्फ़ है न पयाम
नौहा
मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है
रात ढलने लगी है सीनों में
याद
गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा