हमारे कमरे में उस की यादें नहीं हैं 'फ़ाज़िल'
कहीं किताबें कहीं रिसाले पड़े हुए हैं
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मैं अक्सर खो सा जाता हूँ गली-कूचों के जंगल में
इक तअल्लुक़ था जिसे आग लगा दी उस ने
ख़ुमार-ए-शब में तिरा नाम लब पे आया क्यूँ
मिरे लिए न रुक सके तो क्या हुआ
सफ़ेद-पोशी-ए-दिल का भरम भी रखना है
मिसाल-ए-शम्अ जला हूँ धुआँ सा बिखरा हूँ
मैं अपने आप से आगे निकलने वाला था
पुराने यार भी आपस में अब नहीं मिलते
तुम कभी एक नज़र मेरी तरफ़ भी देखो
दास्तानों में मिले थे दास्ताँ रह जाएँगे
कहीं से नीले कहीं से काले पड़े हुए हैं