सद-हैफ़ कि मय-नोश हुए हम कैसे
अबरार से रू-पोश हुए हम कैसे
कुछ याँ का ख़याल है न वाँ का खटका
होश आते ही बेहोश हुए हम कैसे
Ahmad Faraz
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न रहा शिकवा-ए-जफ़ा न रहा
पहले रख ले तू अपने दिल पर हाथ
नासेह की शिकायत वही ज़ख़्म-ए-जाँ है
जाँ जाए पर उम्मीद न जाएगी कभी
क्यूँकर न आस्तीं में छुपा कर पढ़ें नमाज़
कहिए क्या और फ़ैसले की बात
तेरे वादे का इख़्तिताम नहीं
तुझे कल ही से नहीं बे-कली न कुछ आज ही से रहा क़लक़
ज़िंदगी मर्ग की मोहलत ही सही
उस ख़ित्ते की जा आलम-ए-बाला में नहीं
उठने में दर्द-ए-मुत्तसिल हूँ मैं