वो वक़्त-ए-शबाब वो ज़माना न रहा
वो नश्शा मस्ती वो तराना न रहा
आता है कहानी का मज़ा बातों में
अब अपने सिवा कोई फ़साना न रहा
Ahmad Faraz
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Jaun Eliya
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मैं राज़दाँ हूँ ये कि जहाँ था वहाँ न था
जबीन-ए-पारसा को देख कर ईमाँ लरज़ता है
उन से कहा कि सिद्क़-ए-मोहब्बत मगर दरोग़
न हो आरज़ू कुछ यही आरज़ू है
फ़ानी के है नज़दीक बक़ा को भी फ़ना
तुझे कल ही से नहीं बे-कली न कुछ आज ही से रहा क़लक़
क्या ख़ाना-ख़राबों का लगे तेरे ठिकाना
जो दिलबर की मोहब्बत दिल से बदले
पड़ा है दैर-ओ-काबा में ये कैसा ग़ुल ख़ुदा जाने
किस लिए दावा-ए-ज़ुलेख़ाई
दुनिया का अजब रंग से देखा अंगेज़
फ़िक्र-ए-सितम में आप भी पाबंद हो गए