तब्ल-ओ-अलम ही पास है अपने न मुल्क ओ माल
हम से ख़िलाफ़ हो के करेगा ज़माना क्या
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आतिश-ए-मस्त जो मिल जाए तो पूछूँ उस से
मौत माँगूँ तो रहे आरज़ू-ए-ख़्वाब मुझे
लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़्गान-ए-तर सँभाले
क़िस्सा-ए-सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ न कहना बेहतर
फ़रेब-ए-हुस्न से गब्र-ओ-मुसलमाँ का चलन बिगड़ा
आइना-ख़ाना करेंगे दिल-ए-नाकाम को हम
बला-ए-जाँ मुझे हर एक ख़ुश-जमाल हुआ
आफ़त-ए-जाँ हुई उस रू-ए-किताबी की याद
पयाम्बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
बरहमन खोले हीगा बुत-कदा का दरवाज़ा
सफ़र है शर्त मुसाफ़िर-नवाज़ बहुतेरे
है जब से दस्त-ए-यार में साग़र शराब का