जब से कुछ क़ाबू है अपना काकुल-ए-ख़मदार पर
साँप हर दम लोटता है सीना-ए-अग़्यार पर
Allama Iqbal
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या उस से जवाब-ए-ख़त लाना या क़ासिद इतना कह देना
ब-ख़ुदा सज्दे करेगा वो बिठा कर बुत को
जानता उस को हूँ दवा की तरह
मुझे अब मौत बेहतर ज़िंदगी से
बुत-कदे में भी गया का'बे की जानिब भी गया
देखा बग़ौर ऐब से ख़ाली नहीं कोई
किस की उस तक रसाई होती है
ना-तवाँ वो हूँ कि दम भर नहीं बैठा जाता
चार दिन की बहार है सारी
काबा-ए-दिल को अगर ढाइएगा
ऐ यास जो तू दिल में आई सब कुछ हुआ पर कुछ भी न हुआ
बंद-ए-क़बा पे हाथ है शरमाए जाते हैं