और थोड़ा सा बिखर जाऊँ यही ठानी है
ज़िंदगी मैं ने अभी हार कहाँ मानी है
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लफ़्ज़ों के हेर-फेर से बनती नहीं ग़ज़ल
तुम्हारे साथ ये झूटे फ़क़ीर रहते हैं
ख़ाना-ए-दिल कि मोअत्तर भी बहुत लगता है
किस के दिल में बसता हूँ
ग़म उठाता हूँ ग़ज़ल कहता हूँ जीता रहता हूँ
दानाइयाँ अटक गईं लफ़्ज़ों के जाल में
जी चाहता है तर्क-ए-मोहब्बत को बार बार
गरचे हल्का सा धुँदलका है तसव्वुर भी तिरा
बहुत उदास हैं दीवारें ऊँचे महलों की
कटती है शब विसाल की पलकें झपकते ही