Sad Poetry (page 185)
हज़ार चाहा लगाएँ किसी से दिल लेकिन
बाक़र मेहदी
गूँजता शहरों में तन्हाई का सन्नाटा तो है
बाक़र मेहदी
फ़रेब खा के भी शर्मिंदा-ए-सुकूँ न हुए
बाक़र मेहदी
दुश्मन-ए-जाँ कोई बना ही नहीं
बाक़र मेहदी
दीवानगी की राह में गुम-सुम हुआ न था!
बाक़र मेहदी
दश्त-ए-वफ़ा में ठोकरें खाने का शौक़ था
बाक़र मेहदी
दर्द-ए-दिल आज भी है जोश-ए-वफ़ा आज भी है
बाक़र मेहदी
चराग़-ए-हसरत-ओ-अरमाँ बुझा के बैठे हैं
बाक़र मेहदी
चाहा बहुत कि इश्क़ की फिर इब्तिदा न हो
बाक़र मेहदी
बुझी बुझी है सदा-ए-नग़्मा कहीं कहीं हैं रबाब रौशन
बाक़र मेहदी
बरसों पढ़ कर सरकश रह कर ज़ख़्मी हो कर समझा मैं
बाक़र मेहदी
बहुत ज़ी-फ़हम हैं दुनिया को लेकिन कम समझते हैं!
बाक़र मेहदी
बदल के रख देंगे ये तसव्वुर कि आदमी का वक़ार क्या है
बाक़र मेहदी
और कोई जो सुने ख़ून के आँसू रोए
बाक़र मेहदी
अश्क मेरे हैं मगर दीदा-ए-नम है उस का
बाक़र मेहदी
अजीब दिल में मिरे आज इज़्तिराब सा है!
बाक़र मेहदी
अब ख़ानुमाँ-ख़राब की मंज़िल यहाँ नहीं
बाक़र मेहदी
मैं तेरे हिज्र में जीने से हो गया था उदास
बाक़र आगाह वेलोरी
रहता है ज़ुल्फ़-ए-यार मिरे मन से मन लगा
बाक़र आगाह वेलोरी
क्यूँ कर न ऐसे जीने से या रब मलूल हूँ
बाक़र आगाह वेलोरी
अगरचे दिल को ले साथ अपने आया अश्क मिरा
बाक़र आगाह वेलोरी
तू ख़ुश है अपनी दुनिया में
बक़ा बलूच
सिर्फ़ मौसम के बदलने ही पे मौक़ूफ़ नहीं
बक़ा बलूच
मैं किनारे पे खड़ा हूँ तो कोई बात नहीं
बक़ा बलूच
कैसा लम्हा आन पड़ा है
बक़ा बलूच
एक उलझन रात दिन पलती रही दिल में कि हम
बक़ा बलूच
दर्द उट्ठा था मिरे पहलू में
बक़ा बलूच
संदेसा
बक़ा बलूच
मुझे इक शेर कहना है
बक़ा बलूच
माँ
बक़ा बलूच