तेरी जानिब से मुझ पे क्या न हुआ
ख़ैर गुज़री कि तू ख़ुदा न हुआ
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क़ैद-ए-तन से रूह है नाशाद क्या
उल्टी क्यूँ पड़ती है तदबीर ये हम क्या जानें
जब ख़ुदा को जहाँ बसाना था
कब ग़ैर हुआ महव तिरी जल्वागरी का
तुम्हारे आशिक़ों में बे-क़रारी क्या ही फैली है
ज़बान-ए-हाल से हम शिकवा-ए-बेदाद करते हैं
हुस्न की जिंस ख़रीदार लिए फिरती है
मुफ़्त बोसा हसीं नहीं देते
ठिकाना है कहीं जाएँ कहाँ नाचार बैठे हैं
कुछ समझ कर उस मह-ए-ख़ूबी से की थी दोस्ती
लोग जब तेरा नाम लेते हैं