मुफ़्त बोसा हसीं नहीं देते
दिल जो देते हैं दाम लेते हैं
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लोग जब तेरा नाम लेते हैं
आइना देख के फ़रमाते हैं
महफ़िल में उस पे रात जो तू मेहरबाँ न था
साथ दुनिया का नहीं तालिब-ए-दुनिया देते
ख़ुदा जाने 'असर' को क्या हुआ है
बहे साथ अश्क के लख़्त-ए-जिगर तक
कुछ समझ कर उस मह-ए-ख़ूबी से की थी दोस्ती
अपनी जाँ-बाज़ी का जिस दम इम्तिहाँ हो जाएगा
जब नहीं कुछ ए'तिबार-ए-ज़िंदगी
अब जहाँ पर है शैख़ की मस्जिद
ख़ूब-ओ-ज़िश्त-ए-जहाँ का फ़र्क़ न पूछ
इबादत ख़ुदा की ब-उम्मीद-ए-हूर