मजमूआ-ए-ख़ार-ओ-गुल है ज़ेब-ए-गुलज़ार
हक़्क़ा कि बुलंद है मक़ाम-ए-अकबर
सच कहो
जो साहिब-ए-मक्रमत थे और दानिश-मंद
हक़ है तो कहाँ है फिर मजाल-ए-बातिल
मा'लूम का नाम है निशाँ है न असर
तौहीद की राह में है वीराना-ए-सख़्त
अहमद का मक़ाम है मक़ाम-ए-महमूद
जिस दर्जा हो मुश्किलात की तुग़्यानी
काफ़िर को है बंदगी बुतों की ग़म-ख़्वार
गर रूह न पाबंद-ए-तअ'य्युन होती
चौपाए की तरह तू किताबों से न लद