आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
अपने आईना-ए-तमन्ना में
दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
रात जब भीग के लहराती है