सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
यूँ नदी में ग़ुरूब के हंगाम
दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
एक कम-सिन हसीन लड़की का
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
चंद लम्हों को तेरे आने से
अपने आईना-ए-तमन्ना में
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
यूँ दिल की फ़ज़ा में खेलते हैं
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं