मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
शर्म दहशत झिझक परेशानी
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
साल-हा-साल और इक लम्हा
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
पास रह कर जुदाई की तुझ से
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
सर में तकमील का था इक सौदा
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में