सर में तकमील का था इक सौदा
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
उस के और अपने दरमियान में अब
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
साल-हा-साल और इक लम्हा
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
शर्म दहशत झिझक परेशानी
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ