उस के और अपने दरमियान में अब
शर्म दहशत झिझक परेशानी
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
मैं ने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से
पास रह कर जुदाई की तुझ से