हर इल्म ओ यक़ीं है इक गुमाँ ऐ साक़ी
हर आन है इक ख़्वाब-ए-गिराँ ऐ साक़ी
अपने को कहीं रख के मैं भूला हूँ ज़रूर
लेकिन ये नहीं याद कहाँ ऐ साक़ी
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वो आएँ तो होगी तमन्नाओं की ईद
मेरे कमरे की छत पे है उस बुत का मकान
ज़ब्त-ए-गिर्या
कल रात गए ऐन-ए-तरब के हंगाम
औरों को बताऊँ क्या मैं घातें अपनी
ऐ मर्द-ए-ख़ुदा नफ़्स को अपने पहचान
क्या तब्ख़ मिलेगा गुल-फ़िशानी कर के
ऐ ज़ाहिद-ए-हक़-शनास वाले आलिम-ए-दीं
बंदे क्या चाहता है दाम-ओ-दीनार
इंसान की तबाहियों से क्यूँ हिले दिल-गीर
बे-नग़्मा है ऐ 'जोश' हमारा दरबार
हर रंग में इबलीस सज़ा देता है