जब कभी आलम-ए-तसव्वुर में
और कुछ दैर अभी ठहर जाओ
ज़िंदगी इस तरह भटकती है
रंग-अफ़्शाँ हो जिस तरह उमीद
हाए ये सादगी ओ पुरकारी
दिल में न जाने कितनी उमीदें लिए हुए
ना-मुरादी के तुंद तूफ़ाँ में
चेहरा-ए-आफ़ाक़ को देती है नूर
शम्-ए-ज़र्रीं की नर्म लौ ऐ दोस्त
एक मुद्दत सितम उठाने पर
आरज़ू है कि अब मिरी हस्ती
है कुछ ऐसी ही बरहमी ऐ दिल