न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे