हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी