हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की