वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
न समझा गया अब्र क्या देख कर
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की