हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश