सुना है चाह का दावा तुम्हारा
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए