तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
न समझा गया अब्र क्या देख कर
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब