क्यूँ न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बे-दाद कि हम
आप उठा लेते हैं गर तीर ख़ता होता है
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इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
सौ बार बंद-ए-इश्क़ से आज़ाद हम हुए
ग़ैर को या रब वो क्यूँकर मन-ए-गुस्ताख़ी करे
नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का
क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन 'असद'
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
लो हम मरीज़-ए-इश्क़ के बीमार-दार हैं
आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
है आदमी बजाए ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल