ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कहूँ जो हाल तो कहते हो मुद्दआ' कहिए
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
ये लाश-ए-बे-कफ़न 'असद'-ए-ख़स्ता-जाँ की है
आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से
अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो
गुलशन में बंदोबस्त ब-रंग-ए-दिगर है आज
फ़र्दा-ओ-दी का तफ़रक़ा यक बार मिट गया
पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा
सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
जब ब-तक़रीब-ए-सफ़र यार ने महमिल बाँधा