कोई वीरानी सी वीरानी है
ग़लती-हा-ए-मज़ामीं मत पूछ
नींद उस की है दिमाग़ उस का है रातें उस की हैं
छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए
आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'
काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना
यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं
न सुनो गर बुरा कहे कोई
वो मिरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा