है किस क़दर हलाक-ए-फ़रेब-ए-वफ़ा-ए-गुल
ब-नाला हासिल-ए-दिल-बस्तगी फ़राहम कर
गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर
शिकवे के नाम से बे-मेहर ख़फ़ा होता है
तू दोस्त किसू का भी सितमगर न हुआ था
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
दे मुझ को शिकायत की इजाज़त कि सितमगर
रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे
अफ़्सोस कि दंदाँ का किया रिज़्क़ फ़लक ने
है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे