बिखरी हुई है यूँ मिरी वहशत की दास्ताँ
दामन किधर किधर है गिरेबाँ कहाँ कहाँ
निकले उस अंजुमन से तो पहलू में दिल न था
आए जो ढूँडने तो वो बोले यहाँ कहाँ
ऐसे में क्या चले हो 'मुबारक' चमन को तुम
बुलबुल कहाँ बहार कहाँ बाग़बाँ कहाँ
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पूछी तक़्सीर तो बोले कोई तक़्सीर नहीं
आने में कभी आप से जल्दी नहीं होती
जो निगाह-ए-नाज़ का बिस्मिल नहीं
चितवन जो क़हर की है तो तेवर जलाल के
समझाएँ किस तरह दिल-ए-ना-कर्दा-कार को
शिकस्त-ए-तौबा की तम्हीद है तिरी तौबा
जो उन को चाहिए वो किए जा रहे हैं वो
खटक रही है कोई शय निकाल दे कोई
ये तसर्रुफ़ है 'मुबारक' दाग़ का
जाँ-निसारान-ए-मोहब्बत में न हो अपना शुमार
नावक कहें सिनाँ कहें तलवार क्या कहें