मैं तो हर हर ख़म-ए-गेसू की तलाशी लूँगा
कि मिरा दिल है तिरे गेसू-ए-ख़मदार के पास
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मोहब्बत में वफ़ा की हद जफ़ा की इंतिहा कैसी
कल तो देखा था 'मुबारक' बुत-कदे में आप को
फिर मिले हम उन से फिर यारी बढ़ी
तुम को समझाए मुबर्रक कोई क्यूँकर अफ़्सोस
बद-ज़न हैं अहल-ए-काबा मुझ दैर-आश्ना से
शिकस्त-ए-तौबा की तम्हीद है तिरी तौबा
मेहराब-ब-इबादत ख़म-ए-अबरू है बुतों का
कहाँ क़िस्मत में इस की फूल होना
कली रह गई ना-शगुफ़्ता हमारी
ये तसर्रुफ़ है 'मुबारक' दाग़ का
हम भी दीवाने हैं वहशत में निकल जाएँगे
दिल लगाते ही तो कह देती हैं आँखें सब कुछ