संगत दिलों की जीवनों मरणों का इर्तिबात
फिर डर पड़ा था क्या तुझे गिर्द-ओ-नवाह का
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रंग और रूप के प्रदीप में खोने दे मुझे
तुझे पछाड़ न दें रौशनी में तेरे रफ़ीक़
फिर मुझे मिल नदी किनारे कहीं
हसरत-ए-अहद-ए-वफ़ा बाक़ी है
दरिया पे टीकरी से परे ख़ानक़ाह थी
देना मिरा संदेश सखी फिर
और सफ़र लम्बा हुआ हर गाम पर
खिले धान खिलखिला कर पड़े नद्दियों में नाके
फिर लहलहा उठा समय आमों पे बौर का
बेकल है मुख निगाह में बोसों की प्यास है
लोग थे क्या जो अज़लों से मुश्ताक़ हुए
छत्तीस साल का भी सन्यास छीन कर