हुस्न के नाज़ उठाने के सिवा
हम से और हुस्न-ए-अमल क्या होगा
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चितवन में शरारत है और सीन भी चंचल है
सहर जो निकला मैं अपने घर से तो देखा इक शोख़ हुस्न वाला
अब तो ज़रा सा गाँव भी बेटी न दे उसे
मानी ने जो देखा तिरी तस्वीर का नक़्शा
मिरी इस चश्म-ए-तर से अब्र-ए-बाराँ को है क्या निस्बत
मज़मून-ए-सर्द-मेहरी-ए-जानाँ रक़म करूँ
मुफ़्लिसी
बैठे हैं अब तो हम भी बोलोगे तुम न जब तक
मरता है जो महबूब की ठोकर पे 'नज़ीर' आह
चाह में उस की दिल ने हमारे नाम को छोड़ा नाम किया
क्यूँ नहीं लेता हमारी तू ख़बर ऐ बे-ख़बर
मैं हूँ पतंग-ए-काग़ज़ी डोर है उस के हाथ में