बअ'द-ए-फ़ना भी ख़ैर से तन्हा नहीं हैं हम
बंदों से छुट गए तो फ़रिश्तों में आ मिले
Ahmad Faraz
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जी चाहा जिधर छोड़ दिया तीर अदा को
आए अगर क़यामत तो धज्जियाँ उड़ा दें
'रसा' को दिल में रखते हैं 'रसा' के जानने वाले
आने को नज़र में मिरी सौ फ़ित्ना-गर आए
कौन सा इश्क़-ए-बुताँ में हमें सदमा न हुआ
वो ख़ुश किसी के साथ हैं ना-ख़ुश किसी के साथ
उन की ख़ल्वत में 'रसा' भी होगा
नीची नज़रों से न देखो सर-ए-महशर देखो
दुश्मन की बात जब तिरी महफ़िल में रह गई
पी के कर लेता हूँ तौबा जब से ये दस्तूर है
रास आया है मुझे वहशत में मर जाना मिरा