मुँह न ढाँको अब तो सूरत देख ली
तबीअ'त को होगा क़लक़ चंद रोज़
दीवानों से कह दो कि चली बाद-ए-बहारी
ज़माने में वो मह-लक़ा एक है
टूटे बुत मस्जिद बनी मिस्मार बुत-ख़ाना हुआ
लाएगी गर्दिश में तुझ को भी मिरी आवारगी
मुझ बला-नोश को तलछट भी है काफ़ी साक़ी
क्यूँ-कर न लाए रंग गुलिस्ताँ नए नए
गले लगाएँ बलाएँ लें तुम को प्यार करें
लाला-रूयों से कब फ़राग़ रहा
चाँदनी रातों में चिल्लाता फिरा
करीम जो मुझे देता है बाँट खाता हूँ