एक नग़्मा इक तारा एक ग़ुंचा एक जाम
ऐ ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-दौराँ तुझे मेरा सलाम
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तुम गए रौनक़-ए-बहार गई
जब जाम दिया था साक़ी ने जब दौर चला था महफ़िल में
कोई ताज़ा अलम न दिखलाए
ज़िंदगी और शराब की लज़्ज़त
मआल-ए-नग़्मा-ओ-मातम फ़रोख़्त होता है
ये किनारों से खेलने वाले
दुख-भरी दास्तान माज़ी की
वक़्त की उम्र क्या बड़ी होगी
चाँदनी को रसूल कहता हूँ
चश्म को ए'तिबार की ज़हमत
इस दर्जा इश्क़ मौजिब-ए-रुस्वाई बन गया
हूरों की तलब और मय ओ साग़र से है नफ़रत