दिलों का हाल तो ये है कि रब्त है न गुरेज़
मोहब्बतें तो गईं थी अदावतें भी गईं
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महसूस क्यूँ न हो मुझे बेगानगी बहुत
सदा अपनी रविश अहल-ए-ज़माना याद रखते हैं
जाने क्यूँ रंग-ए-बग़ावत नहीं छुपने पाता
इंतिज़ार
पैमाना-ए-हाल हो गए हम
ज़र्द सूरज
तिरी आरज़ू से भी क्यूँ नहीं ग़म-ए-ज़िंदगी में कोई कमी
कभी कभी
मिरे लहू को मिरी ख़ाक-ए-नागुज़ीर को देख
अब यही रंज-ए-बे-दिली मुझ को मिटाए या बनाए
शायद कि वो वाक़िफ़ नहीं आदाब-ए-सफ़र से