अयाँ 'अलीम' से है जिस्म-ओ-जान का इल्हाक़
मकीं मकाँ में न होता तो ला-मकाँ होता
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मस्त-ए-निगाह-ए-नाज़ का अरमाँ निकालिए
ऐ परी-रू तिरे दीवाने का ईमाँ क्या है
तिरे सिवा मिरी हस्ती कोई जहाँ में नहीं
क्या शौक़ का आलम था कि हाथों से उड़ा ख़त
समद को सरापा सनम देखते हैं
रुस्वा-ए-इश्क़ में तिरा शैदा कहें जिसे
आलम का वजूद है नुमूद-ए-बे-बूद
दिल को यकसूई ने दी तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ की सलाह
जला है किस क़दर दिल ज़ौक़-ए-काविश-हा-ए-मिज़्गाँ पर
हर सर में ये सौदा है कि मैं ही मैं हूँ
सर-ए-अर्श-ए-बरीं है ज़ेर-ए-पा-ए-पीर-ए-मय-ख़ाना
अज़ल से हम-नफ़सी है जो जान-ए-जाँ से हमें