ख़ुद को बे-कल किया औरों को सताए रक्खा
अर्सा-ए-उम्र में इक हश्र उठाए रक्खा
जाने किस तौर से तन्हाई ने चुपके चुपके
शहर का शहर मिरे दिल में बसाए रक्खा
Mohsin Naqvi
Allama Iqbal
Jaun Eliya
Ahmad Faraz
Mir Taqi Mir
Parveen Shakir
Wasi Shah
Gulzar
Habib Jalib
Javed Akhtar
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
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उस के आने की दुआ होती है दिन भर लेकिन
पहेली
ख़ाली हाथों में मोहब्बत बाँटती रह जाऊँगी
कुल्लिया
उस रस्ते पर जाते देखा कोई नहीं है
कोई इम्काँ तो न था उस का मगर चाहता था
बदन और ज़ेहन मिल बैठे हैं फिर से
ऐसा क्या अंधेर मचा है मेरे ज़ख़्म नहीं भरते
नक़्श जब ज़ख़्म बना ज़ख़्म भी नासूर हुआ
कुछ बे-नाम तअल्लुक़ जिन को नाम अच्छा सा देने में
कभी कभी तो अच्छा-ख़ासा चलते चलते